हो समुदाय में बुढ़ापा आने पर मृत्यु होने को स्वाभाविक मृत्यु कहा जाता है। स्वाभाविक मृत्यु की लाश को अपने गोत्र के कब्रस्थान ( उकु षासन) में ही दफन (तोपा) करने का पवित्र रिवाज होता है। किसी अन्य गोत्र के कब्रस्थान में दफन करने का रिवाज नहीं है। क्योंकि अपना और अन्य गोत्र का दुपुब दिषुम मरं वोंगा अलग होते हैं.।
उसकी आत्मा को पवित्र अदिड. में आत्मा पुकार कर गृह प्रवेश (रोवाँ केया अदेर) एंव प्रायश्चित पूजा प्रवेश (वोडा अदेर) करने का पवित्र रिवाज होता है।
अन्त में कव्र (षासन) के उपर में एक पत्थर की जाँताई कर श्रा) कर्म तैल नहान (दिरि दुल सुनुम) करने का पवित्र रिवाज होता है। हो समुदाय में इस प्रकार से तीन बार में मृत छूत संस्कार को प्रायश्चित करने का रिवाज है।
कब्रस्थान
हो जनजाति समुदाय में कब्रस्थान (उकु षासन) एक परिवार का सातवाँ अति पवित्र एवं महत्वपूर्ण दफन स्थान होता है। हो समुदाय में प्रत्येक गोत्र ( किलि) का अपना अलग-अलग कब्रस्थान होता है। क्योंकि एक गोत्र के लाश को दूसरे गोत्र के कव्रस्थान में दफनाना वर्जनीय है। क्योंकि हो समुदाय में प्रत्येक गोत्र का वंशज इष्टदेव (दुपुब दिषुम मरं बोंगा) अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए देयोगम एक गोत्र (किलि) होता है। उसी प्रकार से बाण्डरा दूसरा गोत्र (किलि) होता है। देयोगम गोत्र (किलि) के कव्रस्थान में बाण्डरा गोत्र (किलि) के लाश को दफनाना वर्जनीय होता है। क्योंकि इन दोनों गोत्रों के इष्ट गोत्रदेव (दुपुब दिषुम मरं वोंगा) अलग अलग होते हैं। देयोगम गोत्र (किलि) के कव्रस्थान में बाण्डरा गोत्र (किलि) के लाश को दफनाने से देयोगम गोत्र (किलि) को इष्ट गोत्रदेव (दुपुब दिषुम मरं वोंगा) दण्ड (दण्डे) करता है। और बाण्डरा गोत्र (किलि) को इष्ट गोत्रदेवी (चनलः दिषुम मरं वोंगा) दण्ड (दण्डे) करती है। अर्थ होता है जिस गोत्र का लाश होता है उसे इष्ट गोत्रदेवी (चनलः दिषुम मरं वोंगा) दण्ड ( दण्डे) करती है। और जिस गोत्र के कव्रस्थान में दफनाया जाता है, उसे इष्ट गोत्रदेव (दुपुब दिषुम मरं वोंगा) दण्ड (दण्डे) करता है। हो समुदाय में दो प्रकार के कव्रस्थान ( उकु षासन) के प्रचलन होते हैं। जैसेः-
1.स्वाभाविक मृत्यु का कव्रस्थान और
2.अस्वाभाविक मृत्यु का कव्रस्थान।
स्वाभाविक मृत्यु का कव्रस्थान
कब्रस्थान (उकु षासन) आदि काल या पुराने जमाने से आस्था और विश्वास के साथ सुरक्षित रखते आ रहे हैं। हो समुदाय के सभी गोत्रों (किलियों) में अपना अलग कब्रस्थान ( उकु षासन) व्यतिगत दफन के लिए होता है। हो समुदाय में एक गोत्र का कब्रस्थान (उकु षासन) अलग से एक होता है। यानि एक गोत्र के कब्रस्थान ( उकु षासन) में दूसरे गोत्रों को दफनाना वर्जनीय होता है। क्योंकि हो समुदाय में प्रत्येक गोत्रों एवं प्रत्येक परिवार के अदिड. भी अलग-अलग होते हैं। एक गोत्र के अदिड. में उसी गोत्र के लोग पूजा-पाठ कर सकते हैं। एक गोत्र के अदिड. में दूसरे गोत्र के लोग पूजा-पाठ नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार से एक गोत्र के कब्रस्थान (उकु षासन) में उसी गोत्र के लोगों को ही दफनाने का अधिकार है। एक गोत्र के कब्रस्थान (उकु षासन) में दूसरे गोत्र के लोगों को दफनाने का अधिकार नहीं है। प्रत्येक हो समुदाय के घर के पिछवाड़े में यह एक पवित्र एवं सुरक्षित स्थान होता है। इसलिए प्रत्येक आदिवासी हो जनजाति के हर गोत्रों में कब्रस्थान (उकु षासन) अलग पाये जाते है। उसी प्रकार से हो समुदाय में दाह संस्कार का नियम भी अलग ही होते हैं। हो समुदाय में मृत्यु को तीन प्रकार से माना जाता है। हो समुदाय में प्रकृति (पुदगाल) को ही भगवान माना जाता है। इसलिए मृत्यु को भी प्रकृति के नियम ही माना जाता है। अतः हो समुदाय के अनुसार मृत्यु भी तीन प्रकार से होने की मान्यता रखते हैं। जैसे (जेमोन):
अ.)स्वाभाविक मृत्यु या प्राकृतिक मृत्यु या साधारण मृत्यु (सदयय् गोनोए) Normal Death or Natural
Death or Incidential death .
आ.) अपाकृतिक मृत्यु ( बगइति यन गोनोए) Abnormal death or In-natural death or Accidential
Death.
इ.) जन्म छूत मृत्यु या मृत छूत मृत्यु (बिषि-बिटलन गोनोए)– दूसरे अन्य समुदाय में इस प्रकार की मान्यता
नहीं होते है।
अस्वाभाविक मृत्यु एवं जन्म छूत मृत्यु का कब्रस्थान
1.) अस्वाभाविक मृत्यु की लाश को सबसे पहले प्रायश्चित करना आवश्यक होता है। एक लोटा हल्दी पानी से 9 आम की पत्ती एवं 3 धूब घास से 9 बार झींटा जाता है। इसे ही हो समुदाय में पवित्र प्रायश्चित समक्षा जाता है।
2.)अस्वाभाविक मृत्यु की लाश को अपने कब्रस्थान के बार (उकु षासन अयते तनगा) में दफन (तोपा) करने का पवित्र रिवाज होता है। क्योंकि अस्वाभाविक मृत्यु की आत्मा को कुआत्मा के नाम से जाना जाता और माना जाता है।
3.)उसकी आत्मा को किसी पत्थर या पेड़ के नीचे (सिड. सुबा दिरि सुबा, दारु सुबा) में आत्मा प्रतिष्ठा (रोवाँ केया जपः) एवं वोडा. बड् करने का पवित्र रिवाज होता है. क्योंकि अस्वाभाविक मृत्यु की आत्मा सुआत्माओं को अपवित्र कर सकता है। इस प्रकार से घर में अशंति फैलाने का डर बना रहता है।
4.) अन्त में घर प्रतिष्ठा (ओव् हुउम-तुउम, जते परचि) करने का रिवाज होता है। इसमें श्रा) कर्म (दिरि दुल सुनुम) करने का रिवाज नहीं होता है।
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Jatara Purty · April 30, 2019 at 5:15 am
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